- डॉ.अजीत रानाडे
नरेगा योजना आपदाओं के दौरान रोजगार प्रदान करता है। इसके तहत मिलने वाली मजदूरी, न्यूनतम मजदूरी से जुड़ी हुई है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह गरीबी-विरोधी उपाय के रूप में कार्य करे। योजना में महिलाओं की भागीदारी अधिक है जिसका उद्देश्य उन्हें राजनीतिक व आर्थिक रूप से सशक्त बनाना और स्वायत्तता देना है। कई कार्य स्थलों पर कामकाजी महिलाओं के लिए पालनाघर सेवाएं भी हैं ताकि छोटे बच्चों वाली महिलाएं बिना किसी चिंता के काम कर सकें।
बीस साल पहले संसद ने काम करने या रोजगार का अधिकार कानून पास किया था। यह एक ऐतिहासिक वैधानिक अधिकार है। संविधान के अनुच्छेद 41 में इस तरह के अधिकार की परिकल्पना की गई जो सभी राज्यों को सभी नागरिकों के लिए काम करने का अधिकार सुरक्षित करने का निर्देश देता है। इस कानून को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के रूप में जाना जाता है जिसे 23 अगस्त, 2005 को संसद ने अपनी मंजूरी दी थी। इसे 'नरेगा' भी कहते हैं। इस कानून ने काम मांगने वाले प्रत्येक ग्रामीण परिवार के एक सदस्य के लिए एक निर्दिष्ट दैनिक मजदूरी पर सौ दिनों के अकुशल मैनुअल काम का अधिकार दिया। इन सृजित नौकरियों में से एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित होनी थीं। आवेदक के निवास के 5 किलोमीटर के भीतर रोजगार दिया जाना है और अगर सरकार इस तरह के रोजगार का सृजन करने में असमर्थ है तो उसे मजदूरी के बदले कुछ भत्ता देना होगा। यह दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक सुरक्षा और लोक निर्माण कार्यक्रम है। शुरुआत में इस कार्यक्रम की सफलता पर संदेह होने के बावजूद अब विश्व बैंक द्वारा इसे विकास के एक मुख्य कार्यक्रम के रूप में वैश्विक सम्मान प्राप्त है।
मांग पर ग्रामीण नौकरियों का प्रावधान बेरोजगारी बीमा के लिए एक प्रॉक्सी है। विकसित देशों में बेरोजगार व्यक्ति रोजगार कार्यालय में जाकर अपना पंजीकरण कराता है और नौकरी की तलाश के दौरान बेरोजगारी भत्ता प्राप्त करता है। भारत में श्रम बाजार उतना व्यवस्थित नहीं है इसलिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। इसके बजाय हमारे पास नरेगा है जो ग्रामीण आबादी को कवर करती है। सूखे और अकाल के दौरान नरेगा रोजगार की मांग बढ़ जाती है और यही कारण है कि यह वास्तव में एक 'बीमा' कार्यक्रम है। जब श्रम बाजार की स्थिति में सुधार होता है और कृषि श्रमिकों के लिए बहुत सारे काम उपलब्ध होते हैं तब नरेगा की मांग घटती है। यदि नरेगा की मांग गिरती है तो यह एक अच्छा संकेत है। यदि इस कार्यक्रम की उपयोगिता समाप्त हो जाती है तो इसका मतलब होगा कि ग्रामीण भारत पूर्ण रोजगार की स्थिति तक पहुंच गया है, लेकिन हम उस स्थिति से फिलहाल बहुत दूर हैं। हाल ही में महामारी के दौरान नरेगा के तहत काम की मांग में तेजी से वृद्धि हुई। वित्तीय वर्ष 2020-21 में नरेगा पर कुल व्यय बजट से दोगुना था जो लगभग 1.2 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया और 300 करोड़ व्यक्ति दिवस का काम पैदा हुआ।
नरेगा योजना आपदाओं के दौरान रोजगार प्रदान करता है। इसके तहत मिलने वाली मजदूरी, न्यूनतम मजदूरी से जुड़ी हुई है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह गरीबी-विरोधी उपाय के रूप में कार्य करे। योजना में महिलाओं की भागीदारी अधिक है जिसका उद्देश्य उन्हें राजनीतिक व आर्थिक रूप से सशक्त बनाना और स्वायत्तता देना है। कई कार्य स्थलों पर कामकाजी महिलाओं के लिए पालनाघर सेवाएं भी हैं ताकि छोटे बच्चों वाली महिलाएं बिना किसी चिंता के काम कर सकें। नरेगा के अंतर्गत सार्वजनिक कार्य, सिंचाई जलाशयों, तालाबों, नहरों, ग्रामीण सड़कों, वनीकरण आदि के काम शामिल किए गए हैं जो सार्वजनिक संपत्ति का निर्माण करते हैं। कुछ राज्यों में इस कार्यक्रम में ग्रामीण आवास या निजी संपत्ति का निर्माण भी शामिल है। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की उपलब्धता शहरों पर माईग्रेशन के तनाव को कम करती है। महामारी के दौरान गांवों में नरेगा के तहत काम प्रदान किया गया जिसके कारण बड़े पैमाने पर रिवर्स माइग्रेशन हुआ। श्रमिकों के अधिकार कानून में निहित हैं इसलिए लोगों के पास उन अधिकारों को हासिल करने का एक बेहतर मौका है। आधार लिंकेज की बदौलत मजदूरी का भुगतान सीधे बैंक खातों में जमा किया जाता है जिससे लीकेज कम होता है।
नरेगा के नकारात्मक पहलू क्या हैं? सर्वप्रथम, चूंकि यह एक श्रम बाजार हस्तक्षेप है जो मजदूरी का धरातल और वैकल्पिक विकल्प प्रदान करता है जिसकी वजह से जमींदार और मजदूरों की तलाश करने वाले लोग परेशान हैं। वे अक्सर श्रमिकों की कमी के बारे में शिकायत करते हैं या कहते हैं कि नरेगा श्रमिकों को 'आलसी' बना रहा है। नरेगा के तहत मिलने वाली मजदूरी न्यूनतम है इसलिए श्रमिकों को लुभाने के लिए वैकल्पिक कार्य के लिए मजदूरों को उच्च मजदूरी की पेशकश करने की आवश्यकता है।
दूसरा नकारात्मक पहलू यह है कि नियंत्रण और बायोमेट्रिक उपकरणों के बावजूद अभी भी निधियों का रिसाव है जिनमें श्रमिकों के नकली हाजिरी रजिस्टर जैसे तरीके शामिल हैं जो पैसे को बेईमानी से बाहर निकालने में मदद करते हैं। इसे रोकने के लिए ग्रामीणों या गैर सरकारी संगठनों के सामाजिक ऑडिट की आवश्यकता है। राजस्थान और आंध्र प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में, जहां अच्छी सामाजिक लेखा परीक्षा है, लीकेज बहुत कम था।
तीसरी नकारात्मक समस्या बायोमेट्रिक आवश्यकताओं के कारण है। अंगूठे के निशान या रेटिना रीडर काम नहीं करते या बिजली या मशीन की विफलता के कारण श्रमिक को मजदूरी से वंचित कर दिया जाता है। यहां तक कि गलती की दर अगर 2 प्रतिशत है तो इसके परिणामस्वरूप 1 या 2 करोड़ श्रमिकों को योजना के लाभों से वंचित किया जा सकता है। यह एक गंभीर चूक है। बायोमेट्रिक काम नहीं करने की स्थिति में कुछ सुधारात्मक उपायों की आवश्यकता है।
चौथी कमी भुगतान में देरी की है। इस प्रवृत्ति में हाल में वृद्धि हुई है। ये दिहाड़ी मजदूर हैं इसलिए भुगतान में एक या दो सप्ताह से अधिक की देरी बहुत परेशान करने वाली हो सकती है। सरकारी सूत्रों के अनुसार, हाल के आंकड़ों से पता चलता है कि कुल 975 करोड़ रुपये के भुगतान में गंभीर विलंब हुआ है।
नरेगा की कई विशेषताएं हैं और उन्हें अधिक प्रभावी बनाने के लिए इसमें सुधार किया जा सकता है। यह यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) से अलग है जो बिना शर्त धन हस्तांतरण है। इसे 2017 के आर्थिक सर्वेक्षण में एक अवधारणा के रूप में पेश किया गया था। इसके विपरीत नरेगा स्व-चयनित व्यक्तियों के लिए है जिसमें कठिन शारीरिक श्रम की आवश्यकता होती है। अगर सिस्टम ठीक से काम करता है तो यह संभवत: नकली और धोखाधड़ी के दावेदारों को फ़िल्टर करता है। एनआरईजीएस की सफलता का एक पैमाना यह है कि शहरी समकक्ष बेरोजगारों के लिए इस तरह की योजना शुरू करने की भी मांग होती है। कई राज्य सरकारों ने शहरी रोजगार गारंटी योजना भी शुरू करने पर विचार किया है।
नरेगा लोक निर्माण कार्यक्रमों, प्रयोगों और पायलट परियोजनाओं की परिणति थी जो कुछ हद तक सफलता के साथ 1960 के दशक की शुरुआत में आरंभ हुई थी। लंबे सूखे की पृष्ठभूमि में 1973 में महाराष्ट्र की रोजगार गारंटी योजना शुरू की गई थी। राज्य सरकार ने शहरों में कार्यरत लोगों पर प्रोफेशनल टैक्स लगाकर इसके लिए धन इकठ्ठा किया था। यह योजना अच्छे तरीके से चली और यह राष्ट्रीय कानून के लिए एक प्रेरणा थी। भारत में नरेगा जैसी योजना की आवश्यकता तब तक है जब तक कार्यरत श्रमिकों व बेरोजगार श्रमिकों के व्यापक पंजीकरण तथा ट्रैकिंग के साथ एक पूर्ण औपचारिक बेरोजगारी बीमा योजना शुरू नहीं होती एवं इसके लिए भुगतान करने के लिए नियोक्ताओं से पेरोल टैक्स एकत्र किया जाता रहेगा।
मुफ्त खाद्यान्न (5 किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह) और विभिन्न प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजनाओं जैसे 'पीएम किसान' या 'लाडकी बहिण योजना' का अतिरिक्त प्रभाव इतना है कि नरेगा की आवश्यकता कुछ हद तक कम हो सकती है। यह नहीं भूलना चाहिए कि अपनी कार्य आवश्यकता के कारण नरेगा टिकाऊ ग्रामीण परिसंपत्तियों का सृजन करता है जो उत्पादकता और लोक कल्याण में भी वृद्धि करता है। यह महिला सशक्तिकरण के लिए एक अप्रत्यक्ष माध्यम के रूप में भी कार्य करता है। इसलिए नरेगा की उपलब्धियों एवं उसकी आवश्यकता के मद्देनज़र उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में यह और अधिक प्रभावी होगा। यह पूरी दुनिया के लिए रोल मॉडल है।
(लेखक जाने-माने अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)